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प्रतिशोध
प्रतिशोध ग्रामादग्ध राष्ट्र का जीवनबिन्दु हैं। प्रति- शोध राष्ट्र ‘की अमरता की संजीवनी है। प्रतिशोध पौरुष का लक्षण है प्रतिशोध से भय खाने वाला राष्ट्र टिक नहीं सकता । बोथे, कल्पनारम्य सिद्धान्तों के भ्रमजाल में पड़ कर प्रतिशोध से घृणा करने वाला राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता । प्रतिशोध की भावना से रहित होने वाला राष्ट्र पौरुषहीन होता है । इतिहास साक्षी है। गत एक हजार वर्षो से पाश्चात्य इस्लामी एवं ईसाई राष्ट्र भारत पर आक्रमण करते आये हैं उन आक्रमणों को समय समय पर यथाशक्ति प्रत्युत्तर भी दिया गया है। तथापि, वास्तविकता यह है कि, हम माकमित रहे हैं और हैं भी निश्चय ही राष्ट्र के लिये यह सज्जा की बात है। परन्तु उसके साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि हम मरे नहीं है। संसार के इतिहास- पटल से ही नहीं तो भूपटल से हमें नामशेष करने के प्राकारताओं के प्रबल प्रयास विफल रहे हैं। और इसका श्रेय उन धगणित वीरों को है, जिन का साहस पराजय के उपरान्त भी परास्त नहीं हुआ और जिन्होंने पराजय की पीड़ा को अपने हृदय में पाल कर प्रतिशोध की अग्नि का प्रसवन किया, प्रसरण किया। यदि समय समय पर इन वीरों का अवतरण न होता तो निश्चय ही भारत, इतिहास के पृष्ठों पर ही उर्वरित रहता। हिन्दु सम्राट चन्द्रगुप्त से लेकर क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर तक के ही नहीं अपितु उसके पूर्ववर्ती एवं परवर्ती अनेक सम्राटों ने, सेनापतियों ने सैनिकों ने, क्रान्ति कारियों ने देशभक्तों ने प्रतिशोध की अग्नि को एक पल भी बुझने नहीं दिया और उसी के परिणामस्वरूप पराजित भारत अवसर पाते ही अपनी शक्ति को पुनः संजोकर, विलम्ब से क्यों न हो, पर शत्रु पर टूट पड़ता था और अपने गत पराजय का प्रतिशोध लेने में न चूकता था इस प्रकार पराजय का प्रत्येक इतिहास प्रतिशोध को जन्म देता था और फिर प्रतिशोध से विजय का नूतन इतिहास निर्मित होता था ।
‘प्रतिशोध’ इतिहास के ऐसे ही पर आधारित है। और उसके प्रतिभावान लेखक हैं वीर सावरकर वे सावरकर जो प्रतिशोध को केवल एक मानसिक अवस्था ही नहीं मानते उसे एक साक्षात् दर्शन मानते हैं और अपने इन विचारों को उन्होंने ‘शस्त्र और शास्त्र’ नामक नाटक के अन्त में बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रतिशोध के हेतु ही उन्हों ने ‘अभिनव भारत’ नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की, ठीक शत्रु के शिविर वरतानिया में प्रत्याक्रमण किया और इसी के फलस्वरूप दूर प्रन्दमान में दो जीवन के बन्दीवास की प्रकल्पित स्थिति का पनुभव लेने प्रविष्ट हुए। और तदुपरान्त रत्नागिरी की स्थानबद्धता में मां- भारती की सेवा में लेखनी से करबद्ध रहे । रत्नागिरी की शृंखलाओं से इस रत्नाकर को घांग्ल-शासन ने जब याबद्ध किया, तब उस विपरीत स्थिति से भी लाभ उठा कर इसने अनेकानेक साहित्य रत्न इस राष्ट्र को दिये। उसी प्रसवन में १६३३ की जुलाई में ‘प्रतिशोध’ का प्रणयन हुषा । घोर महाराष्ट्र की प्रसिद्ध ‘भारत भूषण नाटक मण्डली’ ने इस नाटक को बड़े सजधज के साथ एवं सफलता से रंगमञ्च पर प्रस्तुत किया।
प्रतिशोध की भावना से पागल एक पगली के होहल्ले में ही नाटक प्रारम्भ होता है। प्रासाद के प्रांगण में खड़े प्रजाहितदक्ष पेशवा माधवराव पगली को व्यथा से प्रान्दोलित हो उठते हैं। उनके हृदय में भी ठीक वही व्यथा होती है—पानीपत के पराजय की वे पानीपत के प्रतिशोध का निश्चय 1 प्रकट कर पगली को प्रादयस्त करते हैं। उधर मरहटों को प्रतिशोध की प्रतिज्ञा का समाचार पा कर पानीपत विजता अहमदशाह अब्दाली
चिन्तित हो उठता है और अन्य कोई मार्ग उपयुक्त न समझ कर केवल घोस उपट से मरहटों को उनके निश्चय से डिगाने की सोच वह अपने वकील को पेशवा के दरबार में भेजता है। पर माधवराव पेशवा के दृढ़- निश्चय से उसकी मुक्ति व्ययं सिद्ध होती है। इसी प्रसंग में धन्दाली के के साथ हुई चर्चा का निमित्त ले कर लेखक ने महादजी सिन्धिया के मुल से युद्ध एवं लड़ाई का अन्तर स्पष्ट कर इतिहास लेखकों द्वारा दोहराई जाने वाली महान भूल को दर्शाया है । प्रतिशोध से लालायित मरहट्टों का सेनासागर पब हरहरमहादेव की
रण-गर्जना के साथ ही इस्लामी शासकों द्वारा शासित उत्तर भारत की घोर प्रस्थान करता है, बुन्देलखण्ड के विद्रोहियों का घोर फिर जाटों का दमन कर, वह दिल्ली दोपाव की घोर बढ़ता है। उधर इलाहाबाद में अंग्रेज वकील मुगल बादशाह शाहप्रालम को मरहटों के विरुद्ध भड़काते हैं। पर पेशवा के एक प्रमुख सरदार यशवन्तराव उसे पूर्णतः विफल कर देते हैं और बादशाह मरहट्टों से मंत्री की याचना करते हैं। हिन्दु सेना अब पत्थर- गढ़ को प्रपना लक्ष्य बनाती है। इसी पत्थरगढ़ में वीर यशवन्तराव की प्रथम पत्नी सुनीति किलेदार सादुल्लाखान द्वारा बलपूर्वक प्रपहृत कर रखी होती है। उसका ज्वलन्त राष्ट्र प्रेम उसे चैन से बैठने नहीं देता, मतः मरहटों के उत्तर-प्राक्रमरण का समाचार पा कर वह गुप्त रूप से उनसे सम्बन्ध प्रस्थापित करती है। परिणामस्वरूप, सेनापति यशवन्तराव, उन की प्रथम पत्नी सुनीति ( सरदार) तथा द्वितीय पत्नी सुशीला (रूषिकुमार) इनमें एक षड्यन्त्र रचा जाता है, जिस के कार्यान्वयन में पगली सुनीति एवं सुशीला की मां का भी पूर्ण सहयोग होता है। पड्यन्त्र की योजना के अनुसार पत्थरगढ़ के बारूदखाने में विस्फोट किया जाता है, उसकी प्रग्निशिखानों में विजयोन्माद से मस्त हुई राष्ट्रभक्त पगली स्वयं को समर्पित कर देती है। प्रमासान युद्ध होता है, रोहिले भाग खड़े होते हैं। पत्थरगढ़ पर हिन्दुओं का अधिकार हो जाता है, वीरांगना सुनीति लड़ते लड़ते घायल हो जाती है। हिन्दु-सरसेनापति अन्त्यवस्थ सुनीति को राष्ट्रीय सम्मान देते हैं। उधर पूना के शनिवारबाड़े में पेशवा माधवराव कर्तव्यपूर्ति के धानन्द में वीरों को बधाइयां देते हैं। और इस प्रकार १७६१ में पानीपत की पराजय के प्रतिशोध का कर्तव्यकर्म एक दशादि पूर्ण कर १७७१ में उत्तर हिन्दु- स्थान को इस्लामी राजसत्ता को नामशेष किया जाता है।
‘प्रतिशोध’ का मूल कथानक मरहट्टों की उत्तरविजय पर आधारित है, परन्तु उसके साथ हो विदेश से वापस पाये वीरवर यशवन्तराव के माध्यम से लेखक ने सिन्धुबन्दी एवं रोटीबन्दी जैसी भ्रामक कल्पनाओं को निर्मूल सिद्ध किया है, साथ ही सादुल्लाखान द्वारा बलपूर्वक अपहृत प्रथम पत्नी सुनीति का सम्मान स्वीकार करने का प्रादध प्रस्तुत कर शुद्धि- अान्दोलन का महत्व भी प्रतिपादित किया है। वैसे ही कोंडण्णा मौर घोंडण्णा के रूप में समाज में होनेवाले स्वार्थी, भीर तथा नीच तत्वों को चित्रित कर उनके पापों का कठोर प्रायश्चित्त भी दर्शाया है।
‘प्रतिशोध’ के संस्कप से प्रारम्भ होनेवाला यह नाटक प्रतिपल प्रति- शोष की महत्ता का दर्शन कराता हुमा प्रतिशोध की संकल्पपूर्ति करते हुए समाप्त होता है, परन्तु पाठकों एवं दर्शकों के लिए प्रतिशोध का यह उप- देशादेश सदा के लिए छोड़ जाता है, जो हिन्दूराष्ट्र के अमरता की संजी- बनी है।

– विक्रमसिंह, एम. ए.

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