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छह स्वर्णिम पृष्ठ
‘छह स्वर्णिम पृष्ठ’ वीर सावरकर के ८३ वर्ष के सुदीर्घ जीवन के अंतिम दशक की रचना है। इस पुस्तक का पहला खंड उनके देहावसान (२६ फरवरी, १९६६) के दस वर्ष पूर्व १० मई, १९५६ में प्रकाशित हुआ था और दूसरा खंड केवल तीन वर्ष पूर्व अप्रैल १९६३ में। सावरकर की लेखन यात्रा बीसवीं शती के आँख खोलते ही प्रारंभ हो गई थी। स्वातंत्र्य वीर क्रांतिकारी के साथ-साथ वे एक इतिहास लेखक के रूप में भी प्रेरणा पुरुष बन चुके थे। १९०९ में उन्होंने १८५७ की महाक्रांति को प्रथम ‘स्वातंत्र्य समर’ के नाम से प्रस्तुत किया, जिससे ब्रिटिश सरकार इतनी अधिक घबरा गई कि उस पुस्तक को प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ। उन्हीं दिनों सावरकर ने ‘सिक्खों का इतिहास’ भी लिखा था, किंतु उनके भूमिगत जीवन की दौड़-धूप के बीच उसकी पांडुलिपि ही कहीं खो गई। उनके द्वारा रचित इटली के प्रख्यात क्रांतिकारी देशभक्त मॅझिनी का जीवन चरित्र स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना। सन् १९२५ में उन्होंने मुगल सत्ता को धराशायी कर लगभग पूरे भारत पर अपनी विजय पताका फहरानेवाले मराठों के ‘स्वराज्य’ स्थापना का इतिहास ‘हिंदू पदपादशाही’ नाम से प्रकाशित किया। इसके पूर्व, १९२२ में वे ‘हिंदुत्व’ शीर्षक से भारतीय राष्ट्रवाद का व्याख्या ग्रंथ प्रकाशित कर चुके थे। उन्होंने एक भी पंक्ति मनोविलास के लिए निरुद्देश्य नहीं लिखी। भारत की स्वतंत्रता ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। भारत के राष्ट्र- जीवन के सनातन प्रवाह को उसके शुद्ध रूप में समझना व बनाए रखना ही उनकी मुख्य चिंता थी। उस प्रवाह के मूल रूप को जानने, विदेशी आक्रमणों के सामने उसके पराभव और लंबी पराधीनता के काल में भी उसकी विकट संघर्ष गाथा को जानने-समझने के लिए वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास का गंभीर अध्ययन किया और यह अध्ययन उनके मन में गहरी पीड़ा एवं छटपटाहट छोड़ गया। जीवन के अंतिम चरण में ‘इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ जैसा लगभग ५० पृष्ठों का विशालकाय ग्रंथ उसी पीड़ा और छटपटाहट को अभिव्यक्ति है। सावरकर को इतिहास दृष्टि वैज्ञानिक थी. मिथकों एवं लोककथाओं पर आधारित नहीं इस पुस्तक के आरंभ में वे लिखते हैं-” इतिहास का मुख्य लक्षण यह है कि उसमें वर्णित और घटित घटनाओं के स्थल और काल का निश्चित रूप से निर्देश करना संभव हो और इन घटनाओं को यथासंभव देशी अथवा विदेशी साक्ष्यों का आधार प्राप्त हो।” इस निकष पर वे भारत में ऐतिहासिक काल का आरंभ छठवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में गौतमबुद्ध से ही मानते हैं। यहाँ सावरकर और पाश्चात्य इतिहासकारों को धारणा में कोई दूरी नहीं रह जाती। सावरकर भी पुराणों को विशुद्ध इतिहास मानने को तैयार नहीं है। यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि पुराणों में सुरक्षित बुद्ध से पूर्व महाभारत युद्ध और महाभारत युद्ध के पूर्व मनु व इक्ष्वाकु तक की राजवंशावलियों की कथा को क्या हम अपने इतिहास से बाहर निकाल दें, जबकि एफ.ई. पाटर जैसे विदेशी विद्वानों ने भी इन वंशावलियों को बहुत गंभीरता से लिया है और उन पर ‘ एंशिएंट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रेडिशन’ (प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक परंपरा) तथा ‘डायनेस्टोज ऑफ दि कलि एज’ (कलियुग की वंशावलियाँ) जैसे प्रगाढ़ शोधग्रंथ लिखे हैं? ‘छह स्वर्णिम पृष्ठ’ का विषय सावरकर ने विदेशी आक्रमणों के भारतीय प्रतिरोध
को ही बनाया है। पहले पृष्ठ को वे यूनानी सिकंदर के आक्रमण के विकट प्रतिरोध को समर्पित करते हैं। दूसरा पृष्ठ ‘द्विअश्वमेधयाजी’ पुष्यमित्र शुंग द्वारा दूसरे यवन आक्रमण की पराजय को, तीसरे पृष्ठ में वे शक और कुषाणों की दासता से देश को स्वतंत्र करानेवाले संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य की व चौथे पृष्ठ में हूण आक्रमण को परास्त करनेवाले गुप्त सम्राट् स्कंदगुप्त की वीरगाथा को प्रस्तुत करते हैं। प्राचीन भारत की प्रतिरोध गाथाओं के चार स्वर्णिम पृष्ठ १३६ पृष्ठों में समाप्त हो जाते हैं। उसके बाद सावरकर ३१५ पृष्ठों में भारत पर मुसलिम आक्रमणों और उनके विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध को रोमहर्षक कहानी को अत्यधिक पीड़ा और आक्रोश मिश्रित भाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह उनकी पुस्तक का पाँचवाँ स्वर्णिम पृष्ठ है। केवल १८ पृष्ठों में ‘ अंग्रेज भी गए, ‘हिंदू राष्ट्र का स्वातंत्र्य सिद्ध हुआ’ अध्याय या छठे स्वर्णिम पृष्ठ में ब्रिटिश विस्तारण व दासता के विरुद्ध दो सौ वर्ष लंबे स्वातंत्र्य समर को समेट लेते हैं।
कभी-कभी मन में प्रश्न उठता है कि स्वाधीनता प्राप्ति के दस वर्ष बाद जब भारत के सामने प्राचीन सांस्कृतिक अधिष्ठान पर युगानुकूल पुनर्निर्माण की चुनौती प्रमुख थी, तब भी सावरकर को इतिहास दृष्टि केवल विदेशी आक्रमणों के प्रतिरोध पर ही क्यों केंद्रित थी? शायद यह प्रश्न उनके मन में भी उठा था और वे उसका उत्तर भी देते हैं-
“इस ऐतिहासिक कालखंड के जिन स्वर्णिम पृष्ठों की चर्चा में कर रहा हूँ, केवल उन्हें ही स्वर्णिम पृष्ठ की कसौटी पर मैं (क्यों) कसता हूँ? वैसे देखा जाए तो हमारे इस ऐतिहासिक कालखंड में काव्य, संगीत, प्राबल्य, ऐश्वर्य, अध्यात्म आदि अन्यान्य कसौटियों पर खरे उतरनेवाले सैकड़ों गौरवास्पद पृष्ठ मिलते हैं, परंतु किसी भी राष्ट्र पर जब परतंत्रता का प्राण संकट आता है, जब शत्रु के प्रबल एवं कठोर पाद- प्रहार उसे रौंद डालते हैं (तब उस शत्रु को पराजित कर उच्च कोटि का पराक्रम कर स्वराष्ट्र को परतंत्रता से और शत्रु से मुक्त करनेवाली तथा अपने राष्ट्रीय स्वातंत्र्य और स्वराज्य का पुनरुज्जीवन करनेवाली वीर जुझारू पीढ़ी और उसका नेतृत्व करनेवाले वीर, धुरंधर, विजयी पुरुष सिंहों के स्वातंत्र्य संग्राम के वृत्तांतों से रंगे पृष्ठों को ही मैं ‘स्वर्णिम पृष्ठ’ कहता हूँ। कोई भी राष्ट्र अपने पर- -जयी स्वातंत्र्य युद्धों के वर्णनों से युक्त ऐतिहासिक पृष्ठों का सम्मान इसी प्रकार ‘स्वर्णिम पृष्ठ’ कहकर करता है।” (पैरा ७)
इतिहास के गंभीर अध्येता होने के नाते सावरकर का मन मुसलिम आक्रमणों एवं दासता के लगभग हजार वर्ष लंबी कालरात्रि में मुसलित असहिष्णुता, धर्मस्थलों के विध्वंस, स्त्रियों के अपहरण एवं बलात्कार, बलात् धर्मांतरण, विश्वासघात, कृतघ्नता, अमानुषिकता, नरमेध आदि की अनेकानेक हृदय विदारक घटनाओं का स्मरण करके इतनी गहरी वेदना और आक्रोश से भरा हुआ है कि वे बार-बार एक ही प्रश्न उठाते हैं कि हमारे हिंदू पूर्वजों ने ‘शठे शाठ्यं समाचरेत’ के सिद्धांत को क्यों नहीं अपनाया ? क्यों नहीं मुसलिम आक्रांताओं को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया? क्यों हम सद्गुण- विकृति का शिकार बने रहे ? क्यों हमने रोटीबंदी, लोटा बंदी, बेटीबंदी, स्पर्शबंदी, शुद्धिबंदी और समुद्रबंदी की जंजीरों से अपने को बाँध लिया? क्यों हम इन अमानवीय राक्षसी मुसलिम कबीलों के विरुद्ध भी परोपकार, दया, अहिंसा, परधर्म-सहिष्णुता, शरणागत को अभय देना, शत्रु के प्रति उपकार का भाव, परस्त्री का अपहरण न करना, शत्रु-स्त्री के प्रति भी दया, अपने प्राण लेने आए हुए अपराधी को भी क्षमा करना जैसे श्रेष्ठ दैवी गुणों के आचरण पर डटे रहे? सावरकर इसे सद्गुण-विकृति मानते हैं। (पैरा ४२२)। वे पीड़ा भरे स्वरों में कह उठते हैं-“हे हिंदू जाति तुम्हारे अधःपतन के लिए

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