१८५७ का स्वातंत्र्य समर
वी *र सावरकर रचित ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ मात्र इतिहास की पुस्तक नहीं, यह तो स्वयं में इतिहास है। संभवतः, यह विश्व की पहली पुस्तक है, जिसे प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस पुस्तक के प्रकाशन की संभावना मात्र से सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य-बीसवीं शती के प्रथम दशक में जहाँ कभी सूर्यास्त नहीं होता था इतना थर्रा गया था कि पुस्तक का नाम, उसके प्रकाशक व मुद्रक के नाम-पते का ज्ञान न होने पर भी उसने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। इस पुस्तक को ही यह गौरव प्राप्त है कि सन् १९०९ में इसके प्रथम गुप्त संस्करण के प्रकाशन से १९४७ में उसके प्रथम खुले प्रकाशन तक के अड़तीस वर्ष लंबे कालखंड में उसके कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। उस पुस्तक को छिपाकर भारत में लाना एक साहसपूर्ण क्रांति कर्म बन गया। वह देशभक्त क्रांतिकारियों की ‘गीता’ बन गई। उसकी अलभ्य प्रति को कहीं से खोज पाना सौभाग्य माना जाता था। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती से हुई अनेक अंतःकरणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी ।
इतिहास की इस क्रांतिकारी पुस्तक का इतिहास आरंभ होता है सन् १९०६ से, जब क्रांति-मंत्र में दीक्षित युवा विनायक दामोदर सावरकर वकालत पढ़ने के नाम पर शत्रु के घर इंग्लैंड में ही मातृभूमि का स्वातंत्र्य समर लड़ने पहुँच जाते हैं। प्रखर राष्ट्रभक्त एवं संस्कृत के महाविद्वान् पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित ‘इंडिया हाउस’ को अपनी क्रांति-साधना का केंद्र बना लेते हैं। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए व्याकुल युवकों का संगठन खड़ा कर लेते हैं। सन् १९०७ में १८५७ की क्रांति की पचासवीं वर्षगाँठ पड़ी। इस प्रसंग पर भारत में अपने दमन व शोषण के काले इतिहास पर लज्जा और पश्चात्ताप का प्रकटीकरण करने के बजाय ब्रिटिश समाचार-पत्र बौद्धिकों ने अपने राष्ट्रीय शौर्य की गति और भारतीय नेताओं की निंदा का करके लंदन में मौजूद भारतीय देशभक्तों को उद्वेलित कर दिया। यह एक प्रकार से बरौ के छत्ते में ढेला मारने के समान था।
सन् १८५७ की पचासवीं वर्षगाँठ को ब्रिटेन ने विजय दिवस के रूप में मनाया। ब्रिटिश समाचार-पत्रों ने विशेषांक निकाले, जिनमें ब्रिटिश शौर्य का बखान और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की भर्त्सना की गई। ६ मई को लंदन के प्रमुख दैनिक ‘डेली टेलीग्राफ’ ने मोटे अक्षरों में शीर्षक छापा– ‘पचास वर्ष पूर्व इसी सप्ताह शौर्य प्रदर्शन से हमारा ‘साम्राज्य बचा था’। जले पर नमक छिड़कने के लिए लंदन में एक नाटक खेला गया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई एवं नाना साहेब जैसे श्रेष्ठ नेताओं को हत्यारा व उपद्रवी बताया गया। सावरकर के नेतृत्व में भारतीय देशभक्तों ने इस अपमान का उत्तर देने के लिए १० मई को सन् १८५७ की पचासवीं वर्षगाँठ बड़ी धूमधाम से मनाई। भारतीय युवकों ने १८५७ की स्मृति में अपनी छाती पर चमकदार बिल्ले लगाए। उन्होंने उपवास रखा, सभाएँ को, जिनमें स्वतंत्र होने तक लड़ाई जारी रखने की प्रतिज्ञा ली गई। भारतीय देशभक्ति के इस सार्वजनिक प्रदर्शन में शासकीय अहंकार में डूबे अंग्रेज तिलमिला उठे। कई जगह भारतीय युवकों से झड़प की नौबत आ गई। हरनाम सिंह एवं आर.एम. खान जैसे युवकों को छाती पर से बिल्ला न हटाने की जिद के कारण विद्यालय से निष्कासन झेलना पड़ा। अंग्रेजों को अपने ही घर में भारतीय राष्ट्रवाद के उग्र रूप का साक्षात्कार हुआ।
किंतु इस प्रकरण ने सावरकर को अंदर से झकझोर डाला। उनके मन में प्रश्नों का झंझावात खड़ा हो गया। सन् १८५७ का यथार्थ क्या है? क्या वह मात्र एक आकस्मिक सिपाही विद्रोह था? क्या उसके नेता अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा के लिए अलग-अलग इस विद्रोह में कूद पड़े थे? या यह किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुनियोजित प्रयास था ? यदि हाँ, तो उस योजना में किसका मस्तिष्क कार्य कर रहा था ? योजना का स्वरूप क्या था? क्या सन् १८५७ एक बीता हुआ बंद अध्याय है या भविष्य के लिए प्रेरणादायी जीवंत यात्रा? भारत को भावी पीढ़ियों के लिए १८५७ का संदेश क्या है ? आदि-आदि। सावरकर ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए शोध करने का निश्चय किया। इंडिया हाउस के मैनेजर मुखर्जी की अंग्रेज पत्नी की सहायता से उन्होंने भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के आगार इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में प्रवेश पा लिया। लगभग डेढ वर्ष तक ये इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में सन् १८५७ संबंधी दस्तावेजों एवं ब्रिटिश लेखन के महासमुद्र में डुबकियों लगाते रहे। जातीय और विद्वेष जनित पूर्वग्रही ब्रिटिश लेखन में छिपे सत्य को उन्होंने निकाला। १८५७ के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में ये सफल हुए। उन्होंने १८५७ को एक मामूली सिपाही विद्रोह के गड्ढे से उठाकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के उच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। अपनी इस शोध साधना को उन्होंने मराठी भाषा में निबद्ध किया।
इस बीच लंदन में १० मई, १९०८ को १८५७ की क्रांति की वर्षगाँठ का आयोजन किया गया। इस अवसर के लिए सावरकर ने ‘O Martyrs’ (ऐ शहीदो) शीर्षक से में चार पृष्ठ लंबे पैंफ्लेट की रचना की, जिसका इंडिया हाउस में आयोजित कार्यक्रम में तथा यूरोप व भारत में बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में लगातार एक वर्ष तक बैठने के कारण यह तो छिपा नहीं था कि सावरकर १८५७ का अध्ययन कर रहे हैं; परंतु उनका अध्ययन किस दिशा में जा रहा है, इसका कुछ आभास इस पैंफ्लेट से हो गया। इस पॅफ्लेट की काव्यमयी ओजस्वी भाषा १८५७ के शहीदों के माध्यम से भावी क्रांति का आह्वान थी। सावरकर ने लिखा- “१० मई, १८५७ को शुरू हुआ युद्ध १० मई, १९०८ को समाप्त नहीं हुआ है, वह तब तक नहीं रुकेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा करनेवाली कोई अगली १० मई आएगी। ओ महान् शहीदो! अपने पुत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी मदद करो हमारे प्राणों में भी जादू का यह मंत्र फूंक दो जिसने तुमको एकता के सूत्र में गूँथ दिया था।” इस पैंफ्लेट के द्वारा सावरकर ने १८५७ को एक मामूली सिपाही विद्रोह की छवि से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य युद्ध के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। १९१० में सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें पचास वर्ष लंबे कारावास की सजा देनेवाले निर्णय में ‘ऐ शहीदो’ पॅफ्लेट की उपर्युक्त पंक्तियों ही उद्धृत की गई थीं।
१० मई, १९०८ को लंदन के इंडिया हाउस में १८५७ की क्रांति का वर्षगाँठ समारोह अनूठा था। इंग्लैंड और यूरोप के सैकड़ों भारतीय देशभक्त उसमें एकत्र हुए। माथे पर चंदन लगाकर १८५७ के शहीदों का पुण्य स्मरण करते हुए मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सुखों को ठोकर मारकर सर्वस्वार्पण का संकल्प लिया गया। १८५७ की क्रांति की संदेशवाहक चपाती का प्रतीक स्वरूप वितरण हुआ क्रांति की आग प्रज्वलित करनेवाले उक्त पैंफ्लेट का वितरण और वाचन हुआ। इस अनूठे कार्यक्रम का समाचार ब्रिटिश समाचार-पत्रों पर छा गया। सभी पत्रों ने उस पैंफ्लेट को राजद्रोह और क्रांति की चिनगारी सुलगानेवाला बताया।
ब्रिटिश गुप्तचर विभाग बड़ी तत्परता से सावरकर की पुस्तक की पांडुलिपि की खोज में लग गया। ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोंककर इस पांडुलिपि की अनेक
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