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Description

विश्वासघात
यदि कोई हावड़ा के पुल पर खड़े होकर पुल के नीचे बहुते गन्दे जल को देखे और उसमें अनेक प्रकार तथा आकार के जहाज, नौकाओं अथवा बजरों को तैरता देसे तो एक विशेष प्रकार का भाव उसके मन में उत्पन्न होगा। मन पूछेगा कि जिस पानी में अनेक नगरों का मल-मूत्र अनेक कारखानों का कचरा और नौकाओं के असंख्य यात्रियों की थूक इत्यादि मिली हुई है, क्या यही प्रतितपावनी गंगा का जल है ?
हरिद्वार तथा उससे भी ऊपर गंगोत्तरी में जो शीतल, स्वच्छ, मधुर और पावन जल है, क्या यह वही है जो इस पुल के नीचे से गंधाता हुआ चला जाता है ? दूर पूर्वी किनारे के एक घाट पर, अमावस्या के पर्व पर स्नानार्थ आए असंख्य नर- नारी दिखाई देते हैं। दूर-दूर के गांव तथा नगरों से आए ये लोग इस हुगली के पानी में डुबकी लगाने को व्याकुल प्रतीत होते हैं। यह क्यों ? यह तो वह पतित-
पावनी गंगा नहीं, जिसके दर्शन मात्र अथवा नाम-स्मरण से पापी देवता बन जाते हैं। कलकत्ता के घाट पर गंगा में स्नान करने वाले के मुख से, “हर हर गंगे” के शब्द क्या अनर्गल हैं ? अतः इसमें सार पूछने की लालसा वाले जिज्ञासु को भक्त के मन में बैठने की आवश्यकता है।
“ओ भक्त ! देखो जल में यह क्या बहता जा रहा है ?” किसी जहाज द्वारा छोड़ी गन्दे तेल की धारा थी ।
“जै गंगा मैय्या की ।” भक्त के मुख से अनायास निकल गया और फिर उसने प्रश्नकर्ता के मुख की ओर देखते हुए कहा, “वह देखो, कौन स्नान कर रही है ?”
जिज्ञासु की दृष्टि उस ओर घूम गई। एक कुबड़ी, कानी, वृद्धा गले तक पानी में पैठी हुई, सूर्य की ओर मुख कर भगवान की अर्चना कर रही थी। जिज्ञासु की समझ में कुछ नहीं आया। उसने प्रश्न-भरी दृष्टि से भक्त की ओर देखा । भक्त ने पूछा, “कैसी है वह भक्तिनी ?”
“अति कुरूप है।”
“आंखों वाले अन्धे ! उसकी आत्मा में पैठकर देखो। आज वह निर्धन, अपा- हिज और निस्सहाय लोगों का एकमात्र आश्रय बनी हुई है। सत्य-मार्ग की पथिक सत्तर वर्ष का मार्ग लांघकर उस आलोक में लीन होने वाली है जिसमें लीन होने के लिए संसार नालायित रहता है।” परन्तु मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला ।”
बाहरी रूप-रंग देखने वालों को वास्तविक श्रेष्ठता दिखाई नहीं देती। भाई जो कुछ दिखाई देता है कितना कुरूप है, परन्तु इससे यह नहीं सकता कि सब कुछ सारहीन है। भगवान शिव की जटाओं से सति जन इस नदी के कप कप में व्यापक है। उसका तो एक विन्दु-मान पूर्ण सागर को पवित्र करते की सामर्थ्य रखता है।”
यह मन की भावना मात्र है भक्त ! डुबकी लगाकर देखो कि तुम्हारे शरी 1 को भगवान की जटाओं से निकला जल लगता है अथवा उस जहाज का फैला कचरा ?”
इस भावना में कुछ तत्व है क्या? यह प्रश्न मन में उत्पन्न होना स्वाभावि ही है। परन्तु संसार मे कही तापवित्रता मिलती भी है? प्रकृति में प्राय ग वस्तुएँ मिति तथा अन्य वस्तुओं से संयुक्त अवस्था में पाई जाती है और बुद्धिमान पुरुष मैल-मक्खी को निकाल शुद्ध वस्तु उपलब्ध कर लेते हैं।
भारतीय संस्कृति भी गंगा की पवित्र धारा की भाँति बहुत ही प्राचीन काल से चली आती है। वेदों के काल से चली हुई ब्राह्मण ग्रन्थ उपनिषद् दर्शन अथवा रामायण, महाभारत इत्यादि कालों मे समृद्ध होती हुई और फिर बौद्ध, वेदान्त, वैष्णव इत्यादि मतों से व्याख्यात होती हुई बहती चली आई है। कालान्तर में इस सभ्यता में कचरा और कूड़ा-करकट भी सम्मिलित हुआ है और अब हुगली नदी की भाँति एक अति विस्तृत मिथित और ऊपर से मेला प्रवाह बन गई है।
इस प्रवाह में अभी भी वह शुद्ध, निर्मल और पावन ज्योति विद्यमान है। आंख के पीछे मस्तिष्क न रखने वाले के लिए वह गन्दा पानी है परन्तु दिव्य दृष्टि रखने वाले जानते है कि इसमें अभी भी मोती माणिक्य भरे पड़े हैं। भारतीय सभ्यता गंगा की भांति हुगली का पानी नहीं, प्रत्युत वह पवित्र जल है जो त्रिपुरारि की जटाओं से निकलता है।
वैदिक सभ्यता आज हिन्दुस्तानी तहजीब बनने जा रही है, हुगली का मटि- याला गंधाता हुआ जल बनने जा रही है। उसमें स्नान करने का अर्थ यह होगा कि पूर्ण विदेशी सभ्यता इसको आच्छादित करने जाए केवल देखने वाले, इसको पूर्ण रूप में परिवर्तित हो गया समझते हैं, परन्तु समझने वाले इस हुगली के पानी में गंगोत्तरी के जल को व्यापक पाते हैं।
कुछ ऐसी बातें है जो इस सभ्यता की रीढ़ की हड्डी हैं। पुनर्जन्म, कर्म-फल, विद्वानों का मान, विचार स्वातन्त्र्य, व्यक्ति से समाज की श्रेष्ठता, चरित्र महिमा इत्यादि इस सभ्यता के अमिट अंग हैं। ये सब-के-सब वैदिककाल से आज तक अक्षुण चने जाते हैं। भारतीय सभ्यता की ये वस्तुएँ सार रूप है । जब-जब भारतीयों ने इसको छोड़ा है और विदेशी सभ्यता रूपी मिले हुए कचरे को भारतीय प्राक्कथन
सभ्यता माना है तब-तब ही देश तथा जाति आर्थिक, मानसिक और आत्मिक पतन की ओर अग्रसर हुई है।
जब कचरा अधिक होने लगता है । तो मनुष्य पवित्रता के स्रोत पर पहुंच डुबकी लगाने की सोचता है। यदि वर्तमान सभ्यता वेदों की पवित्र सभ्यता का गंदला रूप है और गंदलापन इतना अधिक है कि असल को खोज निकालना कठिन हो रहा हो तो इसके स्रोत वेदों में डुबकी लगाने की आवश्यकता है।
गंगा की महिमा जमुना, घाघरा इत्यादि उसमे मिलने वाली नदियों के कारण नहीं है। उसमें मिला हुआ कीचड़ अथवा मैला उसकी शोभा को नहीं बढ़ाता है। उसकी महिमा तो उसके स्रोत के निर्मल जल के कारण है। बुद्धिमान मैले को पृथक कर सार को प्राप्त कर उसका भोग करता है। यही परम साधना है।
यह उपन्यास है। ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख कहानी का वातावरण बनाने के लिए किया गया है। पात्रों का नाम, स्थान और घटनाओं की तिथियाँ, सब की सब कल्पित हैं। इनका वास्तविक बातों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
१५.८.१९५१

– गुरुदत्त

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